के० एस० टी०,दिल्ली संवाददाता। अब भले दिल्ली में दरवाजों का इतिहास चुनिंदा दरवाजों में सिमट कर रह गया है। लेकिन कभी शाहजहांनाबाद के 14 के अलावे दिल्ली 52 द्वार में थी। इतिहास के पन्नों में उनके बनने की कहानियां और नामों के पीछे के तर्क हैं लेकिन अब वे दरवाजे केवल इतिहास के अलावा कुछ नहीं हैं। अब जो ऐतिहासिक धरोहर बची है उसे संरक्षित करने की कोशिशें हो रही हैं।
इससे उम्मीद जगती है कि इतिहास के गर्भ से और दरवाजे भी मिलें। फिलवक्त दिल्ली गेट, अजमेरी गेट, तुर्कमान गेट, लाहौरी गेट (अब सिर्फ नाम का दरवाजा), त्रिपोलिया गेट, शेरशाह गेट को पुनर्जीवित करने में पुरातत्व विभाग जुटा है। सबरंग के इस अंक में दरवाजों के इतिहास से रूबरू करा रही हैं। प्रियंका दुबे मेहता, शाहजहांनाबाद के चौदह दरवाजों के अलावा शहर में 52 दरवाजे होते थे।
जो शाहजहांनाबाद के पहले, तो कुछ बाद के शासकों द्वारा बनाए गए थे। इतिहासकार सोहेल हाशमी का कहना है कि दिल्ली दरवाजे से शुरू करें तो घड़ी की सुई की दिशा में चलने पर दिल्ली दरवाजे के बाद तुर्कमान दरवाजा, अजमेरी दरवाजा, लाहौरी दरवाजा, काबुली दरवाजा, बदरौ दरवाजा (बद-गंदा, रौ- नाला, बाद में मोरी गेट कहलाया।) कश्मीरी, निगमबोध, केला घाट, बेला घाट, पत्थरघटी, पानी, राजघाट दरवाजा पड़ते हैं।
यह सब जमुना(यमुना) की तरफ खुलते थे। बाद में 1911 में कलकत्ता(अब कोलकाता) के दिल्ली आए अंग्रेजों ने एक कलकत्ता दरवाजा जोड़ा था जो हनुमान मंदिर के पास, जमुना बाजार में था।
शाहजहांनाबाद का हिस्सा नहीं था त्रिपोलिया गेट-: शाहजहांनाबाद के चौदह दरवाजों में त्रिपोलिया दरवाजे की गिनती नहीं होती थी। इतिहासकार सोहेल हाशमी का कहना है कि त्रिपोलिया दरवाजा शाहजहांनाबाद का हिस्सा नहीं था। यह तो दिल्ली के पश्चिम में स्थित है। जीटी करनाल रोड स्थित गुड़ मंडी और महाराणा प्रताप बाग के निकट बने दो त्रिपोलिया गेट कभी अपनी भव्यता और वास्तुशिल्प के अनूठेपन के.
लिए जाने जाते हैं। त्रिपोलिया गेट यानी कि तीन प्रवेश वाला दरवाजा। कभी शान से खड़ा यह अद्भुत दरवाजा 17वीं शताब्दी में नजीब महलदार खां द्वारा बनवाया गया था। महलदार खां मुहम्मद शाह के वजीर थे। इनके निर्माण की कहानी इन दरवाजों पर 1728-1729 के अभिलेखों से मिलती है। मुगलकाल के अंत तक यह दरवाजा बाजार के तौर पर मशहूर रहा।
इस तरह का वास्तुशिल्प दिल्ली के किसी दरवाजे में नहीं मिलता। हालांकि बाद में दरवाजे की लंबाई कम होती गई, या यूं कहें कि सड़क ऊंची होती गई और दरवाजा नीचा होता गया। पुरातत्ववेत्ताओं का कहना है कि जीटी करनाल रोड लगातार बनती रही जिसकी वजह से इस दरवाजे की ऊंचाई उतनी प्रभावशाली नहीं रह गई।
चुनौती बनी शेरशाह गेट की बनावट की जटिलता-: छठी दिल्ली के जीवित दरवाजों में से एक, शेरशाह दरवाजे के पुन?नर्माण की प्रक्रिया ने लंबे समय बाद फिर से गति पकड़ी है। पुरातत्व विभाग ने इस दरवाजे के मरम्मत की तैयारियां तेज कर दी हैं। इस दरवाजे की भव्यता का अंदाजा इसके जर्जर स्वरूप को देखकर भी लगाया जा सकता है कि एक समय में यह कितना खूबसूरत रहा होगा।
चौकोर पत्थर और रोड़ी से बना शानदार नमूना 2012 में बारिश से लगभग 50 फीसद क्षतिग्रस्त हो गया था। वर्ष 2016 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) ने एक वर्ष के भीतर इसकी मरम्मत का जिम्मा लिया लेकिन दरवाजे की बनावट की जटिलता और कुशल कामगार न मिल पाने की वजह से यह काम नियत अवधि में पूरा नहीं हो सका था।
पुराना किला के क्या कहने-:1540 में शेरशाह सूरी ने पुराना किला में इस दरवाजे का निर्माण करवाया था। मथुरा रोड पर लाल पत्थरों से बने इस दरवाजे की ऊपरी मंजिल स्लेटी क्वार्टाइज से बनाई गई है। इसीलिए इसका नाम लाल दरवाजा भी था। इतिहासकार लूसी पेक लिखती हैं कि हालांकि इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल है कि किले का कितना हिस्सा और दरवाजा शेरशाह सूरी ने बनवाया था और.
कितना उससे पहले हुमायूं ने बनवाया था। गेट के सामने के हिस्से में झरोखे और कंगूरे हैं, दरवाजा गढ़ की तरह बना है। यहां पर ऊपरी हिस्से में जाने के लिए सीढ़ियां भी बनी हुई हैं। इन्हें मूल स्वरूप में रखते हुए कुछ बदलाव के जरिए फिर से खड़ा करने की योजना है। पुरातत्व विभाग ने इसके संरक्षण का जिम्मा उठाया है तो उम्मीद लगाई जा रही है कि इस दरवाजे की खूबसूरती फिर से लौट सकेगी।
सूरज डूबते ही बंद हो जाते थे दरवाजे-: यह दरवाजे सुरक्षा के लिए बनवाए गए थे। सोहेल हाशमी बताते हैं कि शहर के चारों तरफ खाई थी और सूरज डूबते ही यह सारे दरवाजे बंद कर दिए जाते थे। मोरी गेट की तरफ से यमुना से पानी लिया जाता था और पूरे शहर का चक्कर लगाकर राजघाट दरवाजे के पास दोबारा यमुना में गिर जाता था। अब उन दरवाजों में से दिल्ली दरवाजा, तुर्कमान दरवाजा, कश्मीरी दरवाजा,
निगमबोध दरवाजे (नई शक्ल में) बचा है। बाकी सभी दरवाजे अंग्रेजों ने तुड़वाकर दीवार खड़ी कर दी थी। क्योंकि 1803 में मराठों को हराने के बाद अंग्रेजों को डर था कि मराठा दोबारा हमला करेंगे। ऐसा हुआ भी होल्कर के नेतृत्व में दिल्ली पर हमला हुआ लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें हरा दिया।