किताबो से की दोस्ती तो किताबें बदलेगी किस्मत

हते हैं कितावें इंसान की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं‚ बशर्ते वो उनसे दोस्ती गांठ ले। यह दोस्ती इतनी असरदार हो सकती है कि इंसान का कायाकल्प ही हो जाए। एक पल के लिए सोचें कि कैदियों को किताबों से दोस्ती करने का मौका मिल जाए तो कितना बड़़ा बदलाव आ सकता है इसके लिए जरूरी है जेल में किताबों की उपलब्धता‚

जो कि फिलवक्त शायद ही देश के किसी जेल में दिखती है। यह उपलब्धता अगर जेल में पुस्तकालय की शक्ल में हो तो बदलाव की कल्पना की जा सकती है। कुछ ऐसी ही कल्पना को पंख लगाने की कोशिश राज्य सभा में दिखी‚ जहां मनोनीत सदस्य राकेश सिन्हा ने देश की सभी जेलों में पुस्तकालय खोलने की मांग की।

ऐसा नहीं है कि जेलों में किताबें नहीं मिलतीं‚ कैदियों की मांगों पर उन्हें उपलब्ध कराया जाता है। केरल‚ तमिलनाडु़ आदि की जेलों में सांकेतिक रूप से पुस्तकालय मौजूद हैं‚ जरूरत इन्हें संस्थागत स्वरूप देने की है। इसकी शुरुआत केंद्रीय कारागारों से की जा सकती है। हां‚ इसमें ध्यान रखने योग्य बात होगी कि किताबें कैदियों की रुचि के अनुरूप हों।

दरअसल‚ जेल शब्द जेहन में आते ही बंदी और सजा का ध्यान आता है। घोर नकारात्मक भाव। समाज का यह भाव जेल से बाहर आने पर व्यक्ति को हतोत्साहित करता है जबकि जेल का असल अर्थ होता है व्यक्ति के सुधार का स्थल। दोषी को उसके द्वारा हुई गलती के लिए समाज से एक निश्चित अवधि के लिए अलग कर दिया जाता है‚

जिससे कि वो अपने किए पर चिंतन करे और जीवन में आगे कोई गलती ना दोहराए। अपनी सजा पूरी करने के बाद कैदी खुद को समाज में अलग–थलग ना महसूस करे या फिर वो गलत रास्ते पर ना जाए‚ इसके लिए उन्हें मानसिक रूप से मजूबत रखना सबसे जरूरी है। वैसे तो कारावास के दौरान जेलों में इसके प्रबंध होते हैं‚

लेकिन व्यक्ति को सुव्यवस्थित पुस्तकालय का साथ मिल जाए तो वह अपनी जिंदगी में कई रंग भर सकता है। कोई भी व्यक्ति जन्मजात अपराधी नहीं होता‚ समय और परिस्थितियों के मकड़़ जाल में वो अपराध कर जाता है। भले ही इसमें कुछ पेशेवर अपराधी बन जाते हैं‚ वो अलग बात है। हमें इनकी बेहतरी के लिए पुस्तकालयों जैसे प्रयोग की दरकार है।

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