अपनों की लूट से खुले आसमां के नीचे रात काटने को मजबूर ये सीनियर सिटीजन
31 Mar
०रैन बसेराओं में कोरोना के आपातकाल में भी पड़े रहे ताले
०इनके सबसे बड़े अपने त्यौहार व मंदिरों में भंडारा कराने वाले
०तैयार तो की थी बुढ़ापे की लाठी किन्तु खा गये दांव
के० एस० टी०,कानपुर संवाददाता।“वक्त से दिन और रात वक्त का हर शै गुलाम” गायक की ये पंक्तियां फुट पाथों व घाटों के किनारे जिंदगी का आखिरी पड़ाव काटने को मजबूर किये गये सीनियर सिटीजनो के आंसू सूख चुके हैं। ऐसा नहीं है कि बुढ़ापे की लाठी के लिए उन्होंने जवानी को जवानी नहीं समझा और बुढ़ापा को बुढ़ापा नहीं समझा किन्तु जब फर्ज अदायगी की बात आई तो उन्हें ठोकरे मारकर उन्ही की चौखट से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
फिर भी वे अपनी औलादों की इज्जत के लिए मुंह छुपाए-छुपाए घूम रहे हैं। किन्तु पापी पेट है कि मानता ही नहीं भिक्षावृति से गुजारा करना पड़ रहा है। सामाजिक संस्थाओं ने शहर में इस तरह के बेसहारों के लिए कुछ अपने घर बनवाएं भी है किन्तु शहर में इनकी संख्या इतनी अधिक है कि ये अपने घरों में समा नहीं सकते। कोरोना के आपातकाल के बाद पड़ी भीषण ठंड में तमाम तो फुटपाथों में दम तोड़ चुके हैं तो कुछ बदलते मौसम में दम तोड़ेंगे।
जबकि सरकार द्वारा बनाए गये रैन बसेराओं में निजी कब्जे हैं। इस तरह के नजारे भैरवघाट, सरसैय्या घाट, आनन्देश्वर मंदिर, बिठूर घाटों में पड़े देखे जा सकते हैं। हालांकि उम्र के तीसरे व चौथे पड़ाव की उम्र ही बीमारी वाली होती है। ऐसे में इस तरह के सीनियर सिटीजनों को आराम की अति महन्ती आवश्यकता होती है। ऐसे में यह पापी पेट के लिए कभी रविवार को भैरोघाट तो सोमवार को आनन्देश्वर, शनिवार को चर्चित शनिदेव मंदिर वृहस्पतिवार को.
सांई बाबा तो मंगलवार को चर्चित हनुमान मंदिरों में दयालु भक्तों के भंडारे के इंतजार में डगमगाते कदमों से पहुंच जाते हैं। इनके सामने न ही कोई जाति-पात की दीवार होती है और न ही किसी धर्म की। इनके लिए तो सबसे बड़े दयावान वह होते हैं जो भंडारा करते हैं। उसमें चाहे सिख हो मुस्लिम हो हिन्दू या ईसाई हो। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। जिसमें गुरुनानक जयंती का प्रकाशोत्सव हो या अन्य किसी तरह के ऐसे त्योहार हो जहां जगह-जगह भंडारा होता है।
उस दिन यह खूब छक कर खा लेना चाहते हैं ताकि कई दिनों तक भूक सह सके किन्तु पेट तो उतना ही बड़ा है। ऐसे लोगों के विषय में आंखें भी भीज जाती हैं दिल रोता है। इसी तरह के कुछ लोग ऐसे बेसहारा लोगों के लिए आज भी अपना घर बनवाने में जुटे हैं ताकि उन्हें वहां पर अपने जैसे लोगों का प्यार मिल सके। इसी तरह की चैन फैक्ट्री व फजलगंज वाली गली में हर ट्रक चालक के मुंह में रटा-रटाया नाम “खाना चाचा” दलेलपुरवा चौराहे में.
एक सीमेंट की चर्चित दुकान में एक और चाचा वहीं बुढ़ापा काटते-कटाते दम तोड़ चुके हैं। ऐसा नहीं था इनका कोई न हो भरा-पूरा परिवार था। इसी तरह चार खम्भे चौराहे में प्रायः ही इस तरह की नाजारे देखने को मिल सकती है। जिनका बड़ा मसीहा होरी लाल है। जिनके यहां भूखा आ तो सकता है किन्तु खाली पेट जा नहीं सकता। जबकि वह कोई बड़े लखपति नहीं है किन्तु दिल इतना बड़ा है कि अपना खाना भी अक्सर दूसरे को खिलाते दिख जाएंगे।