ठहर गई दुनिया ठहर गया देश

हते है कि जीवन में संकट अपने साथ विश्‍वास की कमी लेकर आता है। अपने भीतर का संकट दूर करने के अपने अंदर से ही सामना करना पड़ता है मुश्किल का सामना करने की हमारी क्षमता हर दिन कम होती जा रही है। यही कारण है कि मौसम थोड़ा सा अपने विपरीत होते ही हम घबराने लगते हैं जिसके चलते हमे संकट का सामना करना पड़ता है। हमें ये क्यों लगता है कि कि अब क्या होगा जिसके चलते हम मुश्किल से बहार निकलने का रास्ता नहीं निकाल पाते और हम मुश्किल में घिर जाते है। जबकि होता वह हमारे भीतर ही है।

एक पुरानी कहानी है। जो मुझे दिन दिनों याद आ गयी-संकट से गुजरने की यह तरकीब हमेशा अपने साथ रखने वाली दवा की खुराक सरीखी है। यह बात उस समय की है जब गांव से एक सूफी संत गुजर रहे थे। सूफी संत की गुजरने की बात जब गाओं की सेठ को पता चली तो वह उनकी सेवा की लिए तुरंत वहां पहुँच गए। सेठ ने संत का भव्य स्वागत किया। सेठ उन्‍हें हवेली पर ले आये। कुछ दिन बाद जब वह जाने को हुए तो सेठ ने कहा कारोबार अच्‍छा है। लेकिन कुछ और बेहतर का आशीष दीजिए। सेठ की आवाज में संतोष कम लालसा अधिक थी। उनके चित्‍त में प्रसन्‍नता की जगह असंतोष था।

संत ने कहा, मौज में रहिए, यह भी गुजर जाएगा.…

पांच बरस बाद, फि‍र वही संत उसी नगर से गुजरे। नगर सेठ ने जैसे ही सुना उनकी ओर दौड़े, उनको अपने घर ले गये। समय का संयोग ऐसा कि इस बार उनके घर खाने के लाले पड़े थे। दो वक्‍त की रोटी का जुगाड़ मुश्किल हो चला था और विचार करने लगे कि अब क्या किया जाये अब क्‍या किया जाये। उन्‍होंने जितना संभव था, स्‍वागत किया। संत के जाने का समय हुआ तो वह हाथ जोड़ कर खड़े हो गये। संत ने फिर उसी मुस्‍कान से कहा, मौज में रहिए, यह भी गुजर जाएगा। सेठ की पत्‍नी से नहीं रहा गया। उन्‍होंने कहा, कुछ तो कहिए, ऐसे कब तक चलेगा। संत अपनी बात दोहरा कर चले गये।

समय अपनी गति से चला। दो बरस में ही सेठ के दिन बदलने लगे। जल्‍द ही उन्‍होंने वही पुरानी शान-ओ शौकत हासिल कर ली। एक दिन उनको खबर मिली कि संत शहर से गुजरने वाले हैं। वह तुरंत उनसे मिलने आए और उनको घर लेकर आये। संत ने हालचाल पूछा तो वह उनके कदमों में झुक गए कहा, कुछ नहीं चाहिए। अब कुशल है। संत ने अपनी बात दुहराई और आगे बढ़ गये। संकट कैसे भी हों, उनका स्‍वभाव रेत के टीले की तरह होता है। टीले हमेशा के लिए नहीं होते, वह हवा के झोंके साथ बदलते रहते हैं। हमें बस मन को शांत, स्थिर, धैर्यशील रखना है।

अपने-अपने जीवन में बस थोड़ा पीछे देखते रहने का अभ्‍यास हमें तनाव, हाई ब्‍लड प्रेशर, हाईपर टेंशन और गुस्‍से से बचने में मदद करता है। हम कहां से आए / क्‍या थे / क्‍या हो गये। इस पर नजर रखने से हमें खुद को समझने में मदद मिलती है।

इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि हम हमेशा अतीत के आंगन में हमेशा न झांकते रहे। पिछले सप्‍ताह में कम से कम तीन ऐसे लोगों से मिलना हुआ, जो अपने जीवन में अब तक की यात्रा से खासे दुखी थे। दुख से आगे बढ़कर वह अवसाद की ओर जा रहे थे। ऐसा होता तो कैसे होता! काश यह न हुआ होता। जिंदगी ऐसी बातों से नहीं चलती। वह ठोस यथार्थ से आगे बढ़ती है। जो है, सो है. जो हुआ है, उसके किनारे पर चलकर ही आगे बढ़ा जा सकता है। उनके दुख के केंद्र में सबसे बड़ी वही बात थी जो उस नगर सेठ के मन में थी। जो सुख हासिल है, उससे असंतोष। आगे बढ़ने का सपना बुनना खराब नहीं है। तरक्‍की की अभिलाषा में कुछ अनुचित नहीं।

बस ख्‍याल इस बात का रखना है कि मन से संतोष न छिटक जाये। मन में प्रेम और संतोष के साथ स्‍नेह की सही मात्रा उन सभी बीमारियों से बचाने में मददगार है, जिनके लिए हम हजारों खर्च करने के बाद भी चिंतित ही रहते हैं। संकट के गुजरने में गहरा विश्‍वास होना ही सबसे सुखमय जीवनशैली है। ख्‍वाब बुनिए, तरक्‍की के नक्‍शे बनाइए लेकिन जीवन में संतोष, स्‍नेह और प्रेम की कमी नहीं होनी चाहिए।

‘यह भी गुजर जाएगा’ ठोस जीवन की खूबसूरत जीवन शैली है। इसमें वह क्षमता है कि यह आपको डिप्रेशन, उदासी और तनाव की ओर बढ़ने से सहजता से रोक सकता है।

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