कोणार्क सूर्य मंदिर के गर्भगृह से 119 साल बाद हटाई जा रही रेत

के० एस० टी०,कोणार्क के सूर्य/भुवनेश्वर संवाददाता। ओडिशा के कोणार्क स्थित सूर्य मंदिर के गर्भगृह से 119 साल बाद कई टन रेत (बालू) निकाली जा रही है। रेत निकालने के साथ ही सूर्य मंदिर का आकार भी बदल जाएगा। इस कार्य को करने के लिए 3 साल का लक्ष्य रखा गया है। कार्य बेहतर ढंग हो इसके लिए बीते दिन सूर्य मंदिर में पूजा अर्चना भी की गई।भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के अधीक्षक अरुण मल्लिक ने कहा कि विस्तृत दस्तावेज और पिछले दो वर्षों से विभिन्न विशेषज्ञों और इंजीनियरों के साथ विचार-विमर्श करते हुए मंदिर से रेत हटाने के लिए एक सुरक्षित प्रणाली तैयार की गई है ताकि लोग 13 वीं शताब्दी के मंदिर में प्रवेश कर सकें।

 

3 साल में हटेगी रेत-: उड़ीसा उच्च न्यायालय के निर्देश और केंद्रीय मंत्री के संसद को दिए गए आश्वासन के बाद प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। इसके लिए एक प्रतिष्ठित निजी निर्माण कंपनी काम के लिए तकनीकी सहायता प्रदान करेगी जबकि रेत हटाने के लिए एएसआई अधिकारियों को तैनात किया जाएगा। एएसआई का लक्ष्य नवीनतम तकनीक का उपयोग करके वैज्ञानिक तरीके से तीन साल में रेत को हटाना है। रेत को हटाने का निर्णय 2020 में एएसआई द्वारा कोणार्क में आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन में लिया गया था।

 

1903 में ब्रिटिश सरकार ने भराई थी रेत-: सन 1903 में ब्रिटिश काल के दौरान सूर्य मंदिर की सुरक्षा और संरक्षण के लिए मंदिर के गर्भगृह के अंदर रेत भरी गई थी। खराब मौरम के चलते संरचना को गिरने से बचाने के लिए गर्भगृह के चार प्रवेश द्वारों को सील कर इसमें रेत भर दी गई थी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

क्यों हटाई जा रही रेत-: ब्रिटिश सरकार द्वारा जब रेत भरी गई थी तो यह माना गया था कि यह गर्भगृह का भार अपने ऊपर ले लेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह रेत धीरे-धीरे खिरकती गई और अब संरचना में दरारे आने लगी। इसके चलते दुनिया भर के कई विशेषज्ञों ने संरचना को और मजबूत करने के लिए सूर्य मंदिर के जगमोहनम (गर्भगृह) से रेत हटाने का सुझाव दिया। विशेषज्ञों का मानना ​​है कि रेत को हटाने से मंदिर का जीवनकाल कई गुना बढ़ जाएगा।

 

800 साल पहले बना था मंदिर-: बता दें कि गंगा वंश के राजा नरसिंहदेव प्रथम ने 800 साल पहले सूर्य देव की पूजा अर्चना के लिए यह मंदिर बनवाया था। 13 वीं शताब्दी से यह कलिंगन मंदिर पुरी और भुवनेश्वर के साथ ओडिशा के स्वर्ण त्रिभुज का हिस्सा है और पर्यटकों, तीर्थयात्रियों और इतिहास और कला प्रेमियों को आकर्षित करता है। हालांकि, तब से स्मारक ने अपना मुख्य ढांचा खो दिया है और केवल गर्भगृह ही बचा है।

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